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तांत्रिक सन्यासी कृष्णकाली मंडल

-----------:तांत्रिक सन्यासी कृष्णकाली मंडल:-----------
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव भगवान पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

(तांत्रिक सन्यासी कृष्णकाली मण्डल द्वारा श्री गुरुदेव के समक्ष 'बिन्दु-साधना' के दुर्लभ रहस्य का उद्घाटन) 

      तंत्र अद्वैत मार्ग का शास्त्र है। तांत्रिक साधना द्वैत से अद्वैत की यात्रा है। तंत्र का मुख्य साधना-विषय है--
'कुण्डलिनी-योग'। कुण्डलिनी-योग और बिन्दु -योग दोनों एक ही हैं। इसी प्रकार कुण्डलिनी-साधना और बिन्दु-साधना भी एक ही है। केवल बाहर से थोडा भेद जान पड़ता है।
      तंत्र का गुप्त उपदेश है कि बिना दीक्षा के सत्य के ज्ञान का उदय होना सम्भव नहीं और बिना अभिषेक के उस उस ज्ञान की अन्यत्र संचार की सामर्थ्य भी उपलब्ध नहीं होती। इसलिए जिसका यथार्थपूर्ण अभिषेक नहीं हुआ है, वह 'गुरुपद' पर आसीन होने योग्य नहीं है।
      अभिषेक क्या है ?-- मेरे यह पूछने पर तांत्रिक सन्यासी ने कहा--अभिषेक तत्व एक गम्भीर और गहन रहस्य है जिसका उद्घाटन न तो सम्भव है और न तो उचित ही है।
       कुण्डलिनी योगतंत्र -साधना का एकमात्र विषय है। कुण्डलिनी-योग के अनुसार सत्य की खोज जीवन के अस्तित्व के रहस्यों की खोज है। जीवन है, जगत है, अस्तित्व है, होश है, इन्द्रियां हैं--अर्थात् सबकुछ है लेकिन इन सबके होते हुए भी जीवन के सत्य से मनुष्य अपरिचित है। जीवन का यह अपरिचय, अज्ञान मनुष्य के लिए पीड़ादायी है। अभी तक जीवन-प्रवाह में मनुष्य विकास की जिस स्थिति में पहुंचा है, वह वास्तव में अपर्याप्त है। विराट की संभावना की तुलना में मनुष्य एक बीज मात्र है। लेकिन उस बीज में गुप्तरूप से बहुत कुछ छिपा हुआ है। उसी 'बहुत कुछ' को प्रकाश में लाना कुण्डलिनी-योग का लक्ष्य है।
      मनुष्य के अस्तित्वगत अन्तर्विकास व अन्तर्यात्रा की जो प्रक्रिया जानी-समझी गयी और खोजी-पहचानी गयी, उसी से 'धर्म' का निर्माण हुआ है। जैसे विज्ञान ने पदार्थ- जगत और स्थूल जीवन-जगत की खोज की है, उसी प्रकार एक अस्तित्वगत आत्मजगत व अन्तश्चेतना- जगत की भी खोज की गई है जिसके पराविज्ञान को धर्म ने विकसित किया है। इसी खोज को धर्म 'साधना' कहता है और उसकी अंतःप्रक्रियाओं को कहता है--'योग'।
       योग के जितने भी आयाम हैं, उनमें कुण्डलिनी- योग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कुण्डलिनी की अन्तर्यात्रा स्थूलतम आधार से शुरू होकर सूक्ष्म से सूक्ष्म होती हुई-- सूक्ष्मातिसूक्ष्म का भी अतिक्रमण कर परम सत्य तक मनुष्य को पहुंचाती है। कुण्डलिनी-साधना अपने विकास की ऊंचाइयों में योग के अनेक आयामों को और विभिन्न प्रक्रियाओं को अपने में समाहित कर लेती है। इसीलिए हम इस साधना को
'सिद्धयोग' या 'महायोग' नाम देते हैं। सच पूछा जाय तो कुण्डलिनी साधना या बिन्दु साधना आतंरिक रूपांतरण और जागरण की वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
       कुण्डलिनी-योग की यात्रा छः शरीर छः चक्रों के भेदन की यात्रा है। इस यात्रा में प्रथम चार शरीर और चार चक्र की साधना को 'बिन्दु- साधना' कहते हैं। इसलिए कि प्रथम चार शरीर और चार चक्र की साधना का आधार 
एकमात्र 'बिन्दु' होता है। बिन्दु का मतलब है--'शुक्र' या 'रज'। उसके बाद साधना का आधार होती है--आत्मा।
       'पंचकोष' क्या है? 
     " पंचकोष उन तत्वों के कोष हैं जिनके द्वारा छः शरीरों का निर्माण होता है। अन्नमय कोष का सारांश वीर्य, शुक्र धातु या शुक्रबिन्दु और राजोबिन्दु है। प्राणमय कोष का सारांश ओजस, तेज, कान्ति, आभा, लावण्य, प्राण आदि है। इसी प्रकार मनोमय कोष का सारांश मनस्तत्व या मन है। अन्नमय कोष से स्थूल शरीर और वासना शरीर का, प्राणमय कोष से सूक्ष्म शरीर का, मनोमय कोष से मनः शरीर का, विज्ञानमय कोष से आत्मशरीर का और आनन्दमय कोष से ब्रह्म शरीर या ब्रह्माण्ड शरीर का निर्माण होता है।
        कुण्डलिनी-योग के अनुसार शुक्रबिन्दु पुरुष तत्व है और राजोबिन्दु है--स्त्रीतत्व। शिव और शक्ति विश्व के मूलाधार तत्व हैं। शिवतत्व और शक्तितत्व का पर्याय पुरुषतत्व और स्त्रीतत्व है। शिवतत्व शक्तितत्व के साथ सामंजस्य स्थापित करता है तो 'बिन्दुरूप' धारण करता है। इसी प्रकार शक्तितत्व शिवतत्व से सामंजस्य स्थापित करता है तो 'नादरूप' धारण करता है। आगे बिन्दु और नाद आपस में संयुक्त होकर मिश्रित रूप धारण करते हैं। इसी मिश्रित रूप का नाम है-"काम"। यह मिश्रित रूप देवपरक और देवीपरक दोनों है। इसमें दोनों तत्वों का तादात्म्य है।
       शिवतत्व का वर्ण श्वेत है और शक्तितत्व का वर्ण है--रक्त (लाल)। इन दोनों वर्ण- बिन्दुओं के मिश्रित रूप को "कला" की संज्ञा दी गयी है। पुनः इन वर्ण-बिन्दुओं के साथ उस मिश्र बिन्दु की संयुक्ति से एक अति विलक्षण तत्व की रचना होती है जिसे "कामकला" कहते हैं। इस प्रकार इन चार प्रकार की शक्तियों से सृष्टि आरम्भ होती है। इस सम्बन्ध में कवि कालिदास का निम्न श्लोक अत्यन्त मार्मिक है--
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ बन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।

अर्थात--वाक (वाणी) और उसके अर्थ की प्रतिपत्ति(उत्पत्ति) के लिए उसी प्रकार संयुक्ति आवश्यक है जिस प्रकार पार्वती और शिव अर्धनारीश्वर की भाँती सँयुक्त हैं। जैसे पुरुषतत्व से स्त्रीतत्व को अलग नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार शब्द से भी अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता। यह अभेद होना ही ही 'अद्वैत' है
      

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