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दलित - मुस्लिम केमेस्ट्री की एक दर्दनाक कहानी

दलित - मुस्लिम केमेस्ट्री की एक दर्दनाक कहानी  --------------------------------------------
आज बात हो रही है , अविभाजित भारत में अंबेडकर से भी बड़े एक दलित नेता, दलित-मुस्लिम राजनीति के जादूगर, जिन्ना के बेहद विश्वासपात्र और पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री – जोगेंद्र नाथ मंडल की।

बताया जाता  हैं कि पाकिस्तान बनने के कुछ ही समय बाद वहां गैर मुस्लिमो को निशाना बनाया जाने लगा।हिन्दुओ के साथ लूटमार, बलात्कार की घटनाएं होने लगी तो मंडल ने इस विषय पर सरकार को कई पत्र लिखे।लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी। जोगेंद्र नाथ मंडल को बाहर करने के लिए उनकी देशभक्ति पर संदेह किया जाने लगा। मंडल को इस बात का एहसास हुआ कि जिस पाकिस्तान को उन्होंने अपना घर समझा था वो उनके रहने लायक नहीं है।मंडल बहुत आहत हुए क्योंकि उन्हें यकीन था कि पाकिस्तान में दलितों के साथ अन्याय नहीं होगा। तकरीबन दो सालों में ही दलित - मुस्लिम एकता का मंडल का ख्बाब टूट गया था, जिसके बाद वो 1950 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को अपना इस्तीफा देकर भारत लौट आए ।और अंतिम समय तक भारत में ही रहे ।

असल में देवेंद्र नाथ मंडल 1940 में कुछ मतभेदों के कारण कांग्रेस पार्टी छोड़कर – मुस्लिम लीग के साथ जुड़ गये। मुसलमानो के वर्चस्व वाली मुस्लिम लीग में जोगेंद्र नाथ मंडल जैसे एक दलित नेता के जुड़ने से मानो जिन्ना और दूसरे मुस्लिम लीग के नेताओं को लगने लगा कि उनकी स्वीकार्यता अब दलित समुदाय में भी बन सकती है। जिन्ना को इस बात का बखूबी अंदाज़ा था कि मुस्लिम लीग में मंडल की मौजूदगी ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ को कैसे फायदा पहुंचा सकती है।इसी वजह से मंडल कुछ ही समय में जिन्ना के बेहद खास हो गए और पार्टी में उनका कद शीर्ष के नेताओं में शुमार हो गया.

मंडल और मुस्लिम लीग के साथ आने के कारण भारत में ‘दलित-मुस्लिम’ राजनीति का एक नया प्रयोग शुरू हुआ।

मंडल को भ्रम हो गया था कि “भारत की तुलना में जिन्ना के पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी” ।

चूँकि मुस्लिम लीग का मकसद भारत का ज्यादा से ज्यादा भाग बाँटकर कर पाकिस्तान के नक़्शे को बड़ा करना था इसलिए उन्होंने मंडल को प्रत्येक मौक़ों पर पार्टी के खास नेता के रूप में पेश किया । लीग के नेता यह बखूबी जानते थे कि केवल मुसलमानों की राजनीति से पाकिस्तान का नक्शा बड़ा नहीं होगा इसके लिए जरूरी है कि दलितों को भी साथ रखा जाए।

लेकिन मुस्लिम लीग और जोगेंद्र नाथ मंडल की --‘दलितों और मुसलमानो का पाकिस्तान’ वाली सोच से अंबेडकर गहरा विरोध रखते थे। अंबेडकर भारत विभाजन के विरोध में थे। वे दलितों के लिए भारत को ही उपयुक्त मानते थे और उनका कहना था कि --“यदि भारत का बँटवारा मज़हबी आधार पर हो रहा है तो जरूरी है कि कोई भी मुसलमान भारत में ना रहे और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भी भारत आ जाना चाहिए, वर्ना समस्याएं बनी रहेंगी।”
इसलिए आगे चलकर अंबेडकर ने मंडल से किनारा कर लिया।

पाकिस्तान में दलितों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाएगा” इस तरह के मंडल के बयानों  ने पिछड़ी जातियों के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में कर लिया और इस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से जिन्ना भारत के बड़े हिस्से को पाकिस्तान के नक्क्षे में समाहित करने में सफल हो गये।

पाकिस्तान के नक़्शे को बड़ा करने के लिए मुस्लिम लीग ने जिस तरह मंडल का इस्तेमाल किया वह बॉलीवुड फ़िल्मो की उन कहानियों जैसा ही था ‘जिसमे एक विलेन किसी बच्चे को किडनैप करने के लिए चॉकलेट की लालच देकर अपने पास बुलाता है और फिर अपना असली रंग दिखाना शुरू करता है।’

बँटवारे के बाद  मंडल एक बड़ी दलित आबादी लेकर पाकिस्तान चले गए। जिन्ना ने भी उनके कर्ज को उतारते हुए उन्हें पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री का पद दे दिया. मंडल ने सोंचा कि “अब पाकिस्तान आकर दलितों के लिए अच्छे दिन आ गए।” लेकिन हुआ कुछ उल्टा।

मंडल के कहने पर भले ही दलितों के एक तबके ने अपने आप को हिंदुओं से अलग बता कर पाकिस्तान चले जाना सही समझा लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए ऊँची जाति के हिंदुओं और दलितों में कोई फर्क न था।

पाकिस्तान में धीरे-धीरे दलित हिंदुओं पर अत्याचार होने शुरू हो गए और मंडल की अहमियत भी ख़त्म कर दी गई। दलितों की निर्ममतापूर्वक हत्याएँ, जबरन धर्म-परिवर्तन, संपत्ति पर जबरन कब्ज़ा और दलित बहन-बेटियों की आबरू लूटना, यह सब पाकिस्तान में रोज की और ‘आम बात’ हो चुकी थी।

इस पर मंडल ने मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य नेताओं से कई बार बात भी की लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ ।

बँटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे ज्यादातर दलित या तो मार दिए गए या फिर मजबूरी में उन्होंने इस्लाम अपना लिया।इस दौरान दलित अपने ही नेता और देश के कानून मंत्री के सामने मदद के लिए चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।

पाकिस्तानी सरकार ने दलित हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों की कोई सुध नहीं ली।

मंडल यह सब देखकर ‘दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकता’ के असफल प्रयोग के लिए खुद को कसूरवार समझे लगे।
और अंत में  8 अक्टूबर 1950 को मंडल,पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के मंत्री-मंडल से त्याग पत्र देकर भारत आ गये।

गए थे लाखों अनुयायियों को लेकर लेकिन आये तो अकेले शरणार्थी बनकर। सारे दलित वहीं रह गए हैं जो मंडल के कहने पर अपना देश छोड़ कर चले गए थे।‘दलित-मुस्लिम एकता’ की कीमत आज तक वह आबादी चुका रही है।वे रोज बेइज्जत हो रहे हैं, धर्म बदल रहे हैं, अपमान के घूंट पी रहे हैं, मैला उठा रहे हैं, भेदभाव का शिकार हो रहे हैं, मानो हर दिन मर-मर के जी रहे हैं।

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